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खिड़कियाँ

मौसम-ए-ख़िज़ां में भी बहार होती खिड़कियाँ उनके आ जाने से यूँ गुलज़ार होती खिड़कियाँ ग़ुर्फ़े से यूँ भेजना उनका वो पैगाम-ए-वफ़ा देखते हैं हम यूँ ही बेतार होती खिड़कियाँ उसने सजा रख़ा है अपना बाम ओ दर, गुर्फ़ ओ दयार और हमारी ज़ीस्त में त्यौहार होती खिड़कियाँ फिर वही शब्-ए-फ़िराक़ ओ बा-हज़ारां इश्तियाक़ फिर किसी तूफ़ान से दो चार होती खिड़कियाँ दरमियाँ दौर-ए-तरक्की तेज़ गाहक हो गए और बदलते वक़्त में होशियार होती खिड़कियाँ फिर किसी के घर का झगड़ा रहगुज़र तक आ गया और सब यूँ देखते अखबार होती खिड़कियाँ उठ रहे जानिब-ए-दर क्यों पाँव ये ना पूछिए देख लीं दीवार में दीवार होती खिड़कियाँ "भारद्वाज"

फ़राज़-ए- सुख़न

सभी हिंदी और उर्दू शायरी को पसंद करने वाले गुणीजनों के लिए मेरी तरफ़ से ये एक अदना सी कोशिश है। आप सभी से ये गुजारिश है कि अगर ब्लॉग पर कोई भी पोस्ट अच्छी लगे तो कमेंट ज़रूर करें। चंद शेर आपकी नज़र कर रहा हूँ "खिड़कियाँ" मौसम-ए-ख़िज़ां में भी बहार होती खिड़कियाँ उनके आ जाने से यूँ गुलज़ार होती खिड़कियाँ ग़ुर्फ़े से यूँ भेजना उनका वो पैगाम-ए-वफ़ा देखते हैं हम यूँ ही बेतार होती खिड़कियाँ फिर वही शब्-ए-फ़िराक़ ओ बा-हज़ारां इश्तियाक़ फिर किसी तूफ़ान से दो चार होती खिड़कियाँ "भारद्वाज"

कब्र

बंजर वीरानों में नाचूँ, जलते दिल की ख़ाक उड़ाउँ  सोच रहा हूँ दिल के अंदर ख़्वाबों की एक कब्र बनाऊं  टूटे, बिखरे, दबे हुए से अरमानों से उसे सजाऊँ  बहते सूखते चंद कतरे जो कहीं लहू के झलक रहे हैं  उनसे थोड़ा रोगन करके अपनी किस्मत पे इतराऊं  सोच रहा हूँ दिल के अंदर ख़्वाबों की एक कब्र बनाऊं  कब से अकेले में भीतर ही भीतर से जो झाँक रही है  जो उदास और रोज़ उदासी हो कर मुझको ताक रही है  उसी उदासी को बहला कर उसके थोड़े नाज़ उठाऊं सोच रहा हूँ दिल के अंदर ख़्वाबों की एक कब्र बनाऊं  टीस, चुभन के गहने ढूंढूं, जो अब कुछ कुछ टूट गए हैं  दुःख के सारे रेशे ढूंढूं जो कुछ पीछे छूट गए हैं  दर्द के सारे धागे जोड़ूँ और अच्छे से गाँठ लगाऊं  सोच रहा हूँ दिल के अंदर ख़्वाबों की एक कब्र बनाऊं  बंजर वीरानों में नाचूँ, जलते दिल की ख़ाक उड़ाउँ  सोच रहा हूँ दिल के अंदर ख़्वाबों की एक कब्र बनाऊं 

उन्स

मेरी इस उन्स का कुछ तो इलाज हो जाये मुझसे मिलता हुआ उनका मिजाज़ हो जाये ये लाज़िम हो, अर्ज़-ए-इल्तिज़ा सुननी ही पड़े इस ज़माने का कुछ ऐसा रिवाज़ हो जाये क्यों बेकरारी सी नुमायां है इन आँखों में क्यों ना इनपर भी थोडा हिजाब हो जाये ये पर्दा ठीक है महफ़िल में लगा रहने दो कुछ गम-ए-आशिक़ी, कुछ उनका लिहाज़ हो जाये जानलेवा है तासीर-ए-मर्ज़-ए-इश्क़ सुनो कहीं ना ये आज़ार ला-इलाज हो जाये मौलिक कृति "भारद्वाज"