खिड़कियाँ

मौसम-ए-ख़िज़ां में भी बहार होती खिड़कियाँ
उनके आ जाने से यूँ गुलज़ार होती खिड़कियाँ

ग़ुर्फ़े से यूँ भेजना उनका वो पैगाम-ए-वफ़ा
देखते हैं हम यूँ ही बेतार होती खिड़कियाँ

उसने सजा रख़ा है अपना बाम ओ दर, गुर्फ़ ओ दयार
और हमारी ज़ीस्त में त्यौहार होती खिड़कियाँ

फिर वही शब्-ए-फ़िराक़ ओ बा-हज़ारां इश्तियाक़
फिर किसी तूफ़ान से दो चार होती खिड़कियाँ

दरमियाँ दौर-ए-तरक्की तेज़ गाहक हो गए
और बदलते वक़्त में होशियार होती खिड़कियाँ

फिर किसी के घर का झगड़ा रहगुज़र तक आ गया
और सब यूँ देखते अखबार होती खिड़कियाँ

उठ रहे जानिब-ए-दर क्यों पाँव ये ना पूछिए
देख लीं दीवार में दीवार होती खिड़कियाँ

"भारद्वाज"

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